मंगलवार, 18 जून 2013

हमार महल्ला !!!

सर्दियों की बारिश मोहल्ले के लफड़ेबाज लड़कों की तरह होती है, एकदम कटकटुआ | बात पिछली सर्दियों की है , मारे बारिश के पूरी सड़क चहले ( कीचड़ ) से भरी थी | घर की गली से निकलने के बाद मैन-सड़क पर आते ही एक साढ़े-तिराहा पड़ता है | साढ़े तिराहा इसलिए क्यूंकि तीन सड़कें और एक गलियां एक जगह पर मिल जाती हैं | फिर भी चौराहा बोल देते पर दरसल गली “मीटिंग-पॉइंट" से करीब साढ़े चार फुट हट के है , इसलिए साढ़े तिराहा | इन साढ़े चार फुट का भी अपना “भौकाल" है | कहते हैं इन साढ़े-चार फुट में जिसने अपना ठेला ( चाट, पकौड़ी, समोसे, टिक्की इत्यादि का ) लगाया वो जल्दी ही पक्की दुकान का मालिक बन गया | धकम-पेल मची रहती है ठेला लगाने की यहाँ पर |

खैर, मुद्दा ये नहीं है | साढ़े-तिराहे के दो कोने भगवान जी के मंदिरों से सुसज्जित हैं | एक तरफ भोले बाबा पीपल के पेड़ के नीचे बैठे हैं तो दूसरी तरफ, पूरी भगवान मंडली है :  राम जी, सीता जी , हनुमान जी , लक्ष्मण जी , दुर्गाजी, भोले बाबा आदि  | दूसरे वाले मंदिर को थोड़ा एक्सटेंशन देकर धर्मशाला का भी जुगाड़ कर लिया गया है |

लेकिन मुद्दा ये भी नहीं है | मुद्दा ये है कि मैं वहीं कोने पर आँख बंद किये भगवान जी के सामने खड़ा हूँ | तभी कानों में आवाज़ पड़ती है “अऊर चटपटे , का हाल” |

चटपटे
बंगाल में लोगों के दो नाम होते हैं , डाक नाम ( मतलब जो डाक यानी चिट्ठी-पत्री के लिए यूज होता है, दूसरा भालो नाम, जो भलाई में लिया जाता है ) | हमारे महल्ले में लोगो के तीन नाम होते हैं : एक घर का ( भालो), एक इस्कूल का ( डाक) और एक मोहल्ले का ( असली नाम) |

घर का नाम छोटे, इस्कूल का घनश्याम | ५ साल की उम्र से आजतक वही, हल्का गुलाबी कुरता, सफ़ेद पायजामा लगाये घनश्याम बाबू को सड़क पर ( वही साढ़े-तिराहे की तीसरी सड़क जो ढाल बनके नदी तक जाती है ) पानी के “बशाते"  की दुकान लगाते देखा है | कुबिरिया टेम ( शाम का समय ) तवा टनटनाते घनश्याम ठेला लगाकर खड़े हो जाते हैं | रेसेशन का असर उनके “बशातों" पर नहीं पड़ा है | ५ ही देते हैं , बस पहले १ रूपये के देते थे, अब १० रुपयों के देते हैं | पर असली मजा तो उनके आलूओं में हैं , तीखे-मसालेदार एकदम चटपटे | इसी से उनका मोहल्ले का नाम है “चटपटे"  |

तो ठीक उस समय जब हम आँखें बंद कर भगवान जी से गुफ्तगू कर रहे थे, तब घनश्याम अपने बगल में थैला खोंसे बाजार जा रहे थे | उन्होंने इतनी ज़हमत भी नहीं उठायी कि देखें किसने पूछा है बस बोल दिए “सब ठीक, तुम सुनाओ" | और बिना कुछ सुने आगे बढ़ लिए | हमने आँखें खोली और घूम के देखा तो एक जानी पहचानी सी सूरत सामने खड़ी थी |  वो हमें नहीं पहचान पाए, पर हम पहचान गए | पर इससे पहले की हम पूछे कुछ भी , आधे जागे और पूरी तरह सोये दुकानदार ( जिनकी दुकान का नाम है “चेतनदास जनरल स्टोर”)   ने उनसे पूछ लिया “केक्के, अबे हियाँ” |

केक्के
घर का नाम “मोनू” , इस्कूल का “कृष्णकांत" , महल्ले का “केक्के" | हमारे बचपन के परम-मित्र | जब हमने पढ़ना शुरू किया था तब वो “बड़े इस्कूल मा जात रहे” | बड़े इस्कूल मतलब कक्षा ५ के पार | पर दोस्त पक्के |

हमारे घर का आँगन इतना बड़ा था के उसमे दो डेढ़-डेढ़ फुटिए  ( हम और हमारे छोटे भ्राता श्री ) क्रिकेट खेल लें, वो भी दो स्टंप लगाकर | आँगन पुराने ज़माने का ज़बर बना हुआ | करीब बीस फुट लंबा | लम्बाई के एक छोर पर “रसोई" और दूसरे छोर पर “गुसलखना” | मैदान के दो एंड थे , “किचेन एंड" से बालिंग और “गुसलखाना एंड" से बैटिंग | शाट मारने के बाद रन बनाने में दो चार कदम तो चलने ही पड़ते | पर “केक्के" शाट भी पिच के बीच से मारते और खड़े खड़े दोनों तरफ की क्रीज़ पर बैट रख कर ७-८ रन हर बाल पर पेल देते |

केक्के का और हमारा साथ बारहवीं क्लास तक रहा जो हम दोनों ने साथ पास की | उसके बाद “वै अपनी दुकान पर बैठे लगे"|

केक्के साहब दूसरे मोहल्ले में शिफ्ट हो गए थे | पर कभी कभी आते रहते | उस दिन भी वो घूमते हुए वहाँ आ गए थे | दुकानदार को उन्होंने जवाब दिया “मजे में , तुम भौंको का हाल” | इससे पहले की उनकी बात आगे बढ़ती हम बोले “अरे मोनू” |अब मोनू पहिचान गए हमें “अरे भईया तुम, कब आये ??” | और हमारे बिना बुलाये हमारे घर चल दिए | रास्ते में बहुत सारी बातें पूछ डाली उन्होंने | कब-कहाँ-कैसे-क्यूँ आये से लेकर कब जाओगे तक, सारे सवाल | सड़क से घर जाने की जो गली है, वो भी उतरती है , वो “कुत्ता ढाल” है | वहाँ से उतर रहे थे तो हमारे बचपन के एक और दोस्त भिंटा गए “गुड्डू" |

गुड्डू
इस नाम के कैरेक्टर हर जगह पाए जाते हैं | हमारे महल्ले में दो थे | एक पटवा के तीसरे लरिका , नाम -शत्रोहन लाल पटवा ( इस्कूल) , गुड्डू ( घर ), टोका मास्टर (महल्ला) , उनकी कहानी फिर कभी | हमको और केक्के को मिलने वाले गुड्डू दूसरे वाले थे |

इस्कूल का नाम “अजीत" , घर का “गुड्डू" और महल्ले का “महरिन के गुड्डू” | गुड्डू बचपन में चित्रहार थे | वो अपने माता-पिता के साथ , हमारे घर के डायगोनोली  अपोजिट घर में एक कमरे के किराये के मकान में रहते | रात में हमारे घर के चबूतरे में सो जाते | सोने से पहले  वो  दिन भर के सुने हुए सारे गानों को रिपीट करते | “कल कालेज बंद हो जाएगा तुम अपने घर को जाओगे" से लेकर “नफरत की दुनिया को छोड़कर प्यार की दुनिया में" सारे गाने गा डालते | जब कोई निकलता बाहर कुत्तों को खाना डालने के लिए,  तो उन्हें हड़का भी दिया करता  “सोय जाओ गुड्डू, कल सुनाय लियो चित्रहार" | अक्सर ये काम हमारी माता-श्री करती थीं |

गुड्डू आजकल रिक्शा चलाते हैं | उन्होंने हमको और केक्के को आते देख लिया | रिक्शा रोक कर बतियाने लगे |  पता चला कि महल्ले की सबसे फेमस हंस्ती “राजाराम” आज कुछ सामान खरीद कर लाये हैं अपने बड़े लड़के की शादी के लिए |

राजाराम 
ये महल्ले के अपवाद हैं काहे की इनका एक ही नाम है “राजाराम" | हर उम्र का इंसान , जो बोल सकता है , इनको इसी नाम से बुलाता है | इसीलिए ये “लादालाम” से लेकर “ससुरा राजाराम" तक कहलाये जाते हैं | “दुई पैडल मारिके घोड़ा चलाने” से लेकर  अपने घर की गिरी दीवार जोड़ना हो , या महंगी से महंगी शर्ट सिलने से लेकर बारात का खाना बनाना हो, उनसे बेहतर कोई कर नहीं सकता | हाँ चटपटे के आलू से वो हार मानते हैं | उनके द्वारा किया गया हर काम गारंटी के साथ ४-५ दिन तक लोगो को हँसा हँसाकर , खून बढ़ाता रहता है |

तो गुड्डू अपने रिक्शा पर राजाराम के बड़े लड़के की शादी का सामान खरीदवाकर वापस जा रहे थे | केक्के बोले “हमहूँ चलित है” | और जाते जाते हमें आर्डर दे गए कि अंटी याने की हमारी माताश्री को नमस्ते कह दिया जाए उनकी तरफ से और वो फिर आयेंगे |
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हम उन सबसे बिदा लेकर घर पहुंचे तो नीचे से ही फोन कर दिए की दरवाज़ा खोल दो | करीब १५ साल पहले हम लोग फर्स्ट फ्लोर पर शिफ्ट हो गए थे | हम दरवाजे पर खड़े थे तभी पीछे रहने वाले मास्टर  साहब निकले और हमसे बोले “भईया सब लोग ऊपर रहत हैं , घंटी बजाय देओ |”

मास्टर साहब  कोई अजनबी ही समझे थे मुझे | तब पता चला मेरा महल्ला , मुझे भूल चुका है | १२ साल से ज्यादा का वक्त वहाँ से बाहर बीत चुका है, पहले पढ़ाई फिर नौकरी के चलते | कभी गए भी तो दो-तीन दिन के लिए | किसी से मिलने, बात करने का भी टाइम नहीं रहता |

खैर, जब हम ऊपर पहुंचे तो राजाराम के लड़के की शादी के किस्से चल रहे थे और हमेशा की तरह लोगो हँस-हँसके बुरा हाल था |

आगे फिर कभी !!!!

*****
P.S. :  आज सुबह ना जाने कहाँ से “लपूझन्ना" का लिंक मिल गया, पूरे दिन बस वहीं पर पड़े पढ़ते रहे | एक दिन में पहली बार कोई ब्लॉग पूरा चाट डाला | कतई कतल जगह है लपूझन्ना, मूड एकदम हरा हो गया  है | रात का खाना खाते-खाते पंकज बाबू से बतियाते हुए ऊपर दिए कैरेक्टर्स की याद आ गयी , तो सोचा हमारा महल्ला क्यूँ पीछे रह जाए | बस ये सब ठेल दिए | देखा जायेगा जो होगा अब | फिर मिलेंगे टाटा !!!
--देवांशु
(लपूझन्ना से पूरी तरह इंस्पायर्ड)
(कहीं-कहीं पर कुछ जाति सूचक शब्दों का इस्तेमाल किया है, अगर किसी को बुरा लग जाए तो माफी एडवांस में मांग लेते हैं पर मंशा किसी को बुरा लगाने की नहीं है )

11 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे भी दो नाम रहे..आजकल तो एक नाम से बसर है।

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  2. गज़ब गज़ब गज़ब...ऐसा लेखन सिर्फ और सिर्फ ब्लॉग पर ही मिल सकता है. बड़े दिनों से कुछ झन्नाटेदार पढ़ने का मन था.आज तमन्ना पूरी हुई.क्या धाँसू धाँसू शब्दों का पिटारा है.

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  3. पूरा का पूरा मोहल्ला उठा के लाकर धर दिया ब्लॉग पर।
    बड़ी चटपटी पोस्ट रही। मजे से पढे।

    इसे जरा पंकज के ब्लॉग पार्टनर को भी पढवा दो। वे भी जान जायें मोहल्ले के बारे में कुछ। :)

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  4. उत्तर
    1. अरे दूसरी पोस्ट पर कमेन्ट कर दिए हैं आप गुरु :)

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    2. दरअसल ये पोस्ट हम पढ़े ही नहीं थे :) अभी पढना हुआ।

      फीड में दूसरी वाली ही पढ़े थे और बीच में 'जे' प्रेस हो गया तो अगली पोस्ट आ गयी. हमें लगा कि पोस्ट तो एक ही थी और घपलेस हो गया :)

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  5. अरे क्या बात है। क्या फोटू खिंची है।

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  6. आपने लिखा....हमने पढ़ा
    और लोग भी पढ़ें;
    इसलिए आज 19/06/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    आप भी देख लीजिए एक नज़र ....
    धन्यवाद!

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  7. Bahut badhiya bhaiya, hamko bhi apne mohalle ke din aur dhansu characters yaad aa gaye!

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  8. राजाराम

    ये महल्ले के अपवाद हैं काहे की इनका एक ही नाम है “राजाराम" | हर उम्र का इंसान , जो बोल सकता है , इनको इसी नाम से बुलाता है | इसीलिए ये “लादालाम” से लेकर “ससुरा राजाराम" तक कहलाये जाते हैं |
    super.................

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