शनिवार, 27 जुलाई 2013

बस ऐसे ही…


इंजीनियरिंग करने के बाद लड़के ने एक एम्एनसी में जॉब ज्वाइन की थी, एक साल से कुछ ज्यादा वक्त हो चुका था | मन लग गया था नयी जगह में |
उस रात वो अपनी माँ से फोन पर बात कर रहा था | करीब आधे घंटे बात करने के बाद माँ ने फोन रखने से पहले बोला “वो दिविशा याद है?  उसकी शादी की बात हो रही है,  हम लोगों का व्यू जानने के लिए बुलाया है लड़के के बारे में” |
“अच्छा, हो आइये आप लोग”
कहकर उसने फोन रख दिया |  उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगा  उसके बाद |

****

लड़के के पापा का जब ट्रांसफर इस शहर में हुआ था तो वो शायद आठवीं में पढ़ रहा था |  किराये का घर था | मकान मालिक की बेटी का नाम दिविशा था | वो भी उसी क्लास में थी, उसी स्कूल में |  बारहवीं तक दोनों साथ पढ़े | साथ आते-जाते तो नहीं, पर शाम छत पर अक्सर साथ गुज़रती |

बाद में लड़का इंजीनियरिंग पढ़ने चला गया | दिविशा ने पढ़ाई उसी शहर में जारी रखी | इस बीच लड़के का अपना घर बन गया , वो लोग नए घर में शिफ्ट हो गए |  फिर मिलना नहीं हुआ दिविशा से |

****

पर आज पहली बार लड़के को  ना जाने क्यूँ, कुछ अलग सा महसूस हुआ | बार बार दिविशा का चेहरा आँखों से सामने घूमने लगा | उसकी एक तस्वीर जो उसके बर्थडे पर उसके साथ खीची गयी थी, उसने छुपा के अपनी डायरी में रखी  हुई थी |

पूरी रात उसी फोटो को देखता रहा | सुबह झपकी आने से कुछ देर पहले उसे रियलाइज हुआ कि वो तो दिविशा से प्यार करता है | पर कहना तो दूर पिछले करीब चार सालों से उससे मिला भी नहीं है | पता नहीं वो भी उसके बारे में ऐसा सोचती है या नहीं |

****

दिविशा को बता दिया गया था कि कुछ दिनों में लड़के वाले उसे देखने आने वाले हैं | तब से वो बेचैन सी थी | कुछ अजीब सा ही लग रहा था उसे, पर उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहे और क्या करे | तब से अक्सर शाम को वो छत पर खड़ी रहती |

****

झपकी से उठते ही लड़के ने अपना बैग पैक किया और अपने घर चल दिया | मम्मी पापा सरप्राइज॒ड थे , जो सालों में अपनी शक्ल नहीं दिखाता था, आज अचानक उनके सामने खड़ा था | “फुरसत मिल गयी साहब" का ताना पापा से सुनने के बाद , वो सबसे पहले तैयार हुआ, कुछ खाया और फिर “दोस्त से मिलने जा रहा हूँ” कहके बाहर जाने लगा |

“शाम को हम लोग चंद्रा आंटी के यहाँ जायेंगे, लड़के वाले आज ही आ रहे हैं, तुम भी वहीँ आ जाना , डिनर के लिए इनवाईट किया है उन्होंने” |

दरवाज़ा पटकने से पहले आवाज़ आयी “आप ही लोग जाओ" |

****

शाम होने को थी, रोज़ की तरह दिविशा छत पर खड़ी कुछ सोच रही थी | कुछ देर में  उसे देखने लड़के वाले आ रहे थे | उसने आसामानी रंग का सूट पहन रखा था | उदासी का रंग उसके गालों पर छाया हुआ था | ठीक पीछे के घर की छत से , जो उसकी छत से लगी हुई थी, किसी के कूदने की आवाज़ हुई |

“तुम" कहते हुए वो घूमी |

“हाँ” |

“यहाँ क्या कर रहे हो,  और ऐसे कूद के क्यूँ आ रहे हो, दरवाज़े से आते, कोई देख लेगा तो आफत आ जायेगी, और आज तो”
“तुम्हें देखने लड़के वाले आने वाले हैं"
“हाँ" कहते कहते उसके आँखों में आंसू आ गए जिसे छुपाने के लिए वो फिर एक बार गली में देखने लगी |

“सुनो"

“क्या है"

“मैं ये कह रहा था" कहते कहते लड़का उसके पास चला गया |

“कुछ मत कहो”

“सुनो तो"

“क्या है!!!!” कहते हुए लड़की उसकी तरफ घूमी, इस बार आंसू ना थमे, ना छुपे |

“कुछ नहीं" कहते हुए लड़के ने उसे बाहों में भर लिया | दिविशा फूट-फूट कर रोने लगी | थोड़ी देर बाद जब वो उससे अलग हुई तो हुए तो डरते हुए लड़के ने बोला ..

“सुनो, तुम बहुत खूबसूरत हो”

“डफर, बस यही बोलोगे”

“आई लव यू दिविशा"

“आई लव यू सुमित" |

 इस बार दोनों की आँखों में आंसू थे |

*****

“देर कर दी तुमने"

“कोई देर नहीं हुई, तुम इस लड़के को मना करो, मैं सबसे बात कर लूँगा"

“लड़का इतना तो पसंद आ गया है इन लोगो को, उसने भी शायद हाँ कर दी है, अब मुश्किल है"

“भाग चलें अभी"

“नहीं"

कोई नीचे से ऊपर आ रहा था | दिविशा डर गयी | उसकी मम्मी उसे नीचे बुलाने आयी थी | सुमित को वहाँ देखकर वो चौंक गयी |

“बेटा तुम , इतने दिनों बाद, कब आये , पता ही नहीं चला”

“हमेशा की तरह चोर दरवाजे से आंटी, पता कैसे चलता” उसने हँसने की कोशिश की |

“अभी भी नहीं सुधरे तुम, चलो अच्छा है, डिनर करके जाना, आज स्पेशल क्या है वो तो तुम्हें पता ही होगा”

“जी" कहने में उसने सारा जोर लगा दिया |

“अच्छा चलो अब नीचे तुम लोग, वो लोग आते ही होंगे , तुम्हारे मम्मी पापा भी आ रहे होंगे सुमित" |

“जी"

दोनों उनके पीछे जीने से उतरने लगे |  आगे की सारी बातें आँखों से हो रही थी | ड्राइंग रूम से अब हँसने की आवाजें आने लगी थी |  दिविशा की माँ एक बार फिर अंदर आयी और उसे बाहर ले जाने लगीं | उदासी का रंग गहरा भी हुआ और छिटक कर सुमित पर भी जा गिरा | वो उनके पीछे चल पड़ा और ड्राइंग रूम के दरवाजे पर पड़े परदे के ठीक पीछे रुक गया |

दिविशा ने परदे को पार किया |

“बेटा सबको नमस्ते करो"

कुछ मिनटों के लिए सन्नाटा छा गया |  दिविशा ने हाथों से परदे को हटाकर सुमित को ड्राइंग रूम में खींच लिया |
सुमित के पापा दिविशा के पापा से कह रहे थे “साहब को बुला के बाँधने का इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता था, भाईसाहब |”

"मैडम भी  कहाँ मान रही थी शादी के लिए इतनी आसानी से " दिविशा के पापा ने कहा |

सुमित की मम्मी ने उठकर दिविशा और सुमित को गले से लगा लिया और सुमित से बोलीं "डायरी में फोटो तो संभाल ली, डायरी भी तो संभाल के रखनी चाहिए थी ना"

आंसू अभी भी थे आँखों में उनकी, बस उनका कारण बदल चुका था |


P.S. : कुछ लव-स्टोरी बिना लफड़े-लोचे के भी पूरी हो जाती हैं |
-- देवांशु

शनिवार, 20 जुलाई 2013

यूँ ही, ऐसे ही !!!


“हाँ, तो क्या नाम बताया तुमने अपना”

“सर, समीर”

“लेखक हो ?”

“नहीं सर, बैंकर”

“तो कहानी लिखने की क्यूँ सूझी तुम्हें ?”

“बस सर लगा कि ये कहानी दुनिया को पता चलनी चाहिए"

“भाई , पहले तो इस कुर्सी पर बैठने वाला हर दूसरा-तीसरा आदमी बोलता है कि वो लेखक नहीं है, दूसरे सबकी कहानी वही घिसी-पिटी एक ही ढर्रे पर चलती होती है, कुछ तड़क-भड़क होनी चाहिए , है तुम्हारी कहानी में ?”

“सर तड़क-भड़क, मतलब ?”

“कुछ वैसे सीन हैं”

“नहीं सर, प्रेम कहानी है”

“तो प्रेम कहानी में वैसे सीन नहीं होते ?”

“ऐसा कुछ हुआ ही नहीं"

“ओह्ह,  खैर कोई नहीं, लड़का भी वैसी फ़िल्में नहीं देखता क्या ? उसी का कोई सीन लिख डालो”

“नहीं सर”

“तो कुछ समाज से बगावत है क्या,  जैसे माँ-बाप नहीं मान रहे ऐसा कुछ”

“सर कुछ-कुछ वैसा ही"

“आ गया ना वही ढर्रा, भाई मेरे, ३६५ कहानी आती हैं ऐसी”

“सर ये शायद थोड़ी अलग हो , आप पढ़ के तो देख लीजिए एक बार"

“फटाफट सुना डाल"

“लड़का-लड़की एक दूसरे से प्यार करते हैं, लड़के के घर वाले इस शादी के खिलाफ है, क्यूंकि लड़का पढ़ा-लिखा है,  मोटी रकम कमाता है और"

“और??”

“और लड़की अंधी है , लेकिन आखिर में वो शादी करते हैं”

“मेलोड्रामा, भाई माफ करो, ऐसी बहुत सी बातें छप चुकी हैं, जनता बोर हो गयी है"

“सर पर ये बाते गयीं तो नहीं ना हमारे यहाँ से"

“तो तुम्हें लगता है कि तुम ये कहानी लिखकर इन बातों को यहाँ से हटा दोगे,  कैसे ?? क्रांतिकारी हो क्या?”

“सर शायद किसी को इससे कोई रास्ता दिख जाये"

“भाई कोई फ़ोकट में भी ऐसी कहानी नहीं खरीदेगा"

“पर सर वो जो सरकार से आपको वृद्ध एवं विकलांग वर्ष के लिए किताबें छापने के लिए ग्रांट मिली है, मैं उसमे से इसे छापना चाहता हूँ”

“अबे पागल हो क्या, वो समाज में अच्छे सन्देश देने के लिए किताबें छापने के लिए मिली  है, ये वाहियात प्रेम कहानी समाज सुधारेगी,  बेटा उसमे कुछ छापना है तो देशभक्ति टाइप का कुछ लिखकर लाओ, कि कैसे एक लंगड़े ने एक पहाड़ पार कर के दुश्मन के बंकर में बम डाल दिया, इस टाइप का कुछ जोश आये जिससे, समझे ”

“सर पर प्रेम भी तो समाज को सुधारने का तरीका है, हम इस तरह के लोगों से सिर्फ देशभक्ति या ऐसा कुछ और, ही क्यूँ चाहते हैं, इनको हमारी तरह रहने-जीने दिया जाए , ये काफी नहीं है क्या ?”

“अरे यार , तुम तो कतई गले पड़ गए, कह दिया ये नहीं छाप सकते हम, अब जाओ"

“क्यूँ?”

“सुनो, और चाहे बाहर जाकर सबको बता देना, ग्रांट मनी का तीस परसेंट एडवांस सुविधा शुल्क लेकर ये ग्रांट झींट पाए हैं , मंत्री जी की भतीजी ने पहले से कहानी भी लिख दी है , वही छपेगी , समझे | और अगर तुम कुछ और छापना चाहते हो तो तड़क भड़क लेकर आओ , समझ गए”

“तो मतलब आप मेरा लिखा नहीं छपेंगे"

“नहीं"

“फिर आप ही बता दीजिए की क्या छापेंगे?”

“एक लेखक को पहले पाठक बनना पड़ता है, और लोगो को पढ़ो, देखो क्या बिक रहा है , वैसा ही कुछ लिखो, तब आना हमारे पास | और ये ग्रांट के चक्कर में मत पड़ जाओ | बैंक की नौकरी करो , खुश रहो"

“ठीक है सर, चलता हूँ”

“चलो, ध्यान रखना, हमारी बात मानोगे तो बहुत आगे जाओगे”

“जी"

वो जाने लगता है | तभी रोककर पीछे से महोदय सवाल पूछ लेते हैं |

“वैसे ये बताओ, ये अंधी लड़की और  नोर्मल लड़के की कहानी तुम्हें सूझी कहाँ से?”

लड़का पीछे घूमता है | एक  हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर आ जाती है:

“वो क्या है ना सर,उस लड़की की आँखें बहुत खूबसूरत हैं और उन्हें मैं हर रोज़ देखता हूँ !!!!!”
--देवांशु

बुधवार, 17 जुलाई 2013

डीज़ल-पेट्रोल

अभी थोड़ी देर पहले बी एस पाब्ला जी के फेसबुक स्टेटस पर एक रिलेटिव स्टडी पढी :

“भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार जब आई तो
1 मार्च 1998 को पेट्रोल 23.94, डीज़ल 9.87 और गैस 136 रूपए की थी जबकि बीजेपी सरकार जाते समय 16 नवंबर 2004 को पेट्रोल 37.84, डीज़ल 26.28, गैस 281 की दर से उपलब्ध हो रहा था

मतलब, 6 वर्षों में पेट्रोल में 60%, डीज़ल में 165%, गैस में 106% की वृद्धि की गई

जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार बनी तो
16 नवंबर 2004 को पेट्रोल 37.84, डीज़ल 26.28, गैस 281 की दर से बिक रहा था और 6 वर्षों बाद जून 2010 को पेट्रोल 51, डीज़ल 40, गैस 345 की दर बाज़ार में था

मतलब, इन 6 वर्षों में पेट्रोल में 34%, डीज़ल में 52%, गैस में 22% की वृद्धि हुई

(मैं किसी राजनैतिक विचारधारा/ दल का समर्थक नहीं, लेकिन हो-हल्ला और हवा हवाई बातें करने वाले खुद जान लें वास्तविकता क्योंकि दैनिक उपयोग की उपभोक्ता वस्तुयों की कीमतें बढ़ना तय है चाहे सरकार कोई भी हो) "

 

 

वैसे मुझे भी किसी दल से ज्यादा लेना देना नहीं है लेकिन एक कैलकुलेशन करने का मन कर गया :

मार्च १९९८

कच्चे तेल की कीमत : १२.७५ डॉलर प्रति बैरल

एक्सचेंज रेट : ४२ रुपये प्रति डॉलर

कच्चे तेल की कीमत भारतीय रुपये में : १२.७५*४२ = ५३५.५

 

नवम्बर २००४ 

कच्चे तेल की कीमत : ४४.३० डॉलर प्रति बैरल

एक्सचेंज रेट : ४५  रुपये प्रति डॉलर

कच्चे तेल की कीमत भारतीय रुपये में : ४४.३*४५ = १९९३.५

 

जून २०१०

कच्चे तेल की कीमत : ६७.१२ डॉलर प्रति बैरल

एक्सचेंज रेट : ४६.५६  रुपये प्रति डॉलर

कच्चे तेल की कीमत भारतीय रुपये में : ६७.१२*४६.५६ = ३१२५.१

 

अगर तुलनात्मक स्टडी की जाए तो १९९८-२००४ के ६ वर्षों में कच्चे तेल की कीमत २७२.२६% बढ़ गयी जबकि तेल के दामों में वृद्धि पेट्रोल में ६०% और डीज़ल में १६५% |

वहीँ २००४-२०१० के कार्यकाल में बाजार मूल्य ५६.७६% की दर से बढ़ गया | और उसके मुकाबले पेट्रोल में ३४%  और डीज़ल में ५२% |

यहाँ पर ये भी देखना ज़रूरी है की परमाणु परीक्षण के बाद भारत पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों का असर भी नकारात्मक प्रभाव भारतीय व्यवस्था पर पड़ रहा था | और अभी तो मार्केट बाहर के निवेश के लिए पूरी तरह से खुला है |

तो जहाँ तक मुझे लगता है की ये वर्तमान सरकार का फेल्योर ही कहा जायेगा , पुरानी सरकार के मुकाबले |

गैस की कीमतों की कहानी तो गैस निष्कर्षण के बेसिन के बन्दर बाँट से समझी जा सकती है | मात्र १० प्रतिशत बेसिन खोलकर सप्लाई को कम किया गया और बढ़ती डिमांड के आगे रेट ऊपर जाने लगे | और उसे काउंटर करने के लिए दाम बढ़ाये गए और फिर कैश-ट्रान्सफर की धुआंधार स्कीम आ गयी |

****

मोदी या किसी और की तारीफ़ ना करते हुए, मुझे ये सरकार आर्थिक मामलों पर फिसड्डी नज़र आ रही है |  धर्म-जाति अपनी जगह है (और मुझे उनसे कोई वास्ता भी नहीं है) ,पर  कम से कम आर्थिक मामलों के चलते मुझे इस सरकार को दुबारा सत्ता में देखने का कोई मन नहीं है |

बाकी सबकी अपनी अपनी एनालिसिस होती है |

आंकड़ों के सूत्र :

एक्सचेंज रेट हिस्ट्री:  http://rbidocs.rbi.org.in/rdocs/Publications/PDFs/56465.pdf , http://www.exchangerates.org.uk/USD-INR-30_06_2010-exchange-rate-history.html

क्रूड आयल प्राइस हिस्ट्री : http://www.ioga.com/Special/crudeoil_Hist.htm

-- देवांशु

शनिवार, 13 जुलाई 2013

चीर-फाड़ , पोसमार्टम !!!!


बीती रात भारत एक बार फिर जीत गया | 

वैसे काफी रात तक स्कोर देखते और फेसबुकियाते रहे | पर फिर लगा अब आराम से जीत जायेंगे तो सो गए, सुकून की नींद |

उठे तो उठते ही फेसबुक से ही पता चला की बबाल हो गया | धोनी ने आखिरी ओवर में मैच जितवा दिया |
समझ ये नहीं आया की लोग किस बात पे बबाली  बने हैं, धोनी ने मैच जितवा दिया इस पर या आखिरी ओवर में जितवाया इस बात पर |

खैर, इ सब तो रोज़ का लफड़ा है | क्रिकेट से जित्ता फायदा खिलाड़ियों को हुआ है उतना ही टीवी चैनलों और कंपनियों को भी हुआ है | खेल विश्लेषकों ने भी अपनी दुकान मस्त खोल दी है |

हम रेडियो कमेंट्री के ज़माने के बाद पैदा हुए | पर बिजली महारानी की असीम किरपा के चलते अक्सर रेडियो कमेंट्री से ही काम चलाना पड़ता था | गली महल्ले में उस समत भी हर कोई किरकेट एक्सपर्ट हुआ करता था | 

ऐसे ही एक शानदार एक्सपर्ट हमारे पिताजी भी थे |  तब तक टीवी आ चुका था पर पिताश्री का कहना था ये टीवी वाले फील्ड पोजीशन सही नहीं बता पाते, इसलिए वो टीवी के साथ रेडियो कमेंट्री भी सुनते | जिसपर हमारी माताश्री का कहना होता “बिजलियो बर्बाद और बैटरी भी” | हर मैच , जो इंडिया हार जाती , उसके बाद पिताजी बताते की किसको नहीं खिलाना चाहिए था या किसने क्या गलती की और अगली बार किसको टीम से धकिया देना चाहिए | साथ ही ये भी बताते की ऐसी सिचुएशन में गावस्कर, प्रसन्ना, चंद्रशेखर आदि ने क्या किया होता | 

उस समय  इक्का दुक्का एक्सपर्ट हुआ करते थे टीवी पर | घिसी-पिटी मिमियाती आवाज़ में विश्लेषण हुआ करते थे वो भी  मैच के बाद दूरदर्शन के स्टूडियो में बैठ कर | उसके बाद कृषि दर्शन शुरू हो जाता | पता ही नहीं चलता की विश्लेषण ख़तम हुआ है की चालू है अभी भी |  दूरदर्शन के समाचारों में भी सरला माहेश्वरी, शम्मी नारंग, ग़ज़ला अमीन  और जे वी रमण हुआ करते थे |  वही न्यूज़ सुनाते और वही विश्लेषण कर देते, मामला रफा-दफा  | संसद समाचारों के चक्कर में स्पोर्ट्स की खबरें वैसे ही कम हो जाया करती | नेताओं की खेलों से दुश्मनी पुरानी रही है |

फिर ज़माना आया तड़कते-भड़कते न्यूज़ चैनल्स का | शुरुआत में तो इन्होने भी दूरदर्शन के वरिष्ठ विश्लेषकों का सहारा लिया | पर जैसे जैसे इनकी संख्या बढ़ निकली, विश्लेषक कम हो गए | लोगों ने खेल पत्रकारों को पकड़ना शुरू किया की आओ भाई विश्लेषण कर डालो | फिर और संख्या बढ़ी तो पुराने खिलाड़ी भी आ गए | जिनसे फील्डिंग के दौरान एक गेंद न पकड़ी गयी, विकेट कीपर को कीपिंग के गुर सिखाने लगे | पर अभी तक विश्लेषण , विश्लेषण ही हुआ करता था |

फिर वो चीर-फाड़ और पोसमार्टम बन गया |

धीरे-धीरे विश्लेषण में “सेंटियापा” घुसेड़ा जाने लगा | मैच शुरू होने से पहले खिलाडियों के पड़ोसियों, चाय वालों, दोस्तों आदि के इंटरव्यू आने लगे | हमारे एक्सपर्ट्स ने उसमे भी बताना शुरू कर दिया “पड़ोसियों में जिस तरह का उत्साह है उसके हिसाब से भारत ये मैच जीत जाएगा” | कुछ बाबा-टाबा भी विश्लेषक बन गए | टैरो कार्ड से मैच के स्कोर का अनुमान लगाया जाने लगा | “आज गांगुली का भाग्य साथ देगा या नहीं" इस पर चर्चा होने लगी | 

कम्पटीशन और बढ़ा तो नए एक्सपेरिमेंट शुरू हो गए |  अब वो दौर आया जब सभ्य-जनों के खेल की चीर-फाड़ सभ्य नहीं रही | तू-तू मैं- मैं शुरू हो गयी | सारे विश्लेषकों के अपने फेवरिट खिलाड़ी होने लगे , वो उनकी किसी भी कीमत पर तरफदारी पर उतर आये |

आजकल समाचारों के साथ स्टोरी दिखाने का चलन है | जिसमे खिलाडियों को “धोनी के धोकेबाज़" से लेकर “धोनी के धुरंधर" तक के तमगों से नवाज़ा जाता है | मुझे लगता है की ये पहले से बना के रख ली जाती होंगी | जीत गए तो ये बजा देंगे , हार गए तो ये बजा देंगे |

इसी तरह की कुछ रिपोर्ट्स भी तैयार रहती हैं | सचिन के सौवें शतक की तैयारी में बहुत सी रिपोर्टें तैयार थी | पर वो शतक मार ही नहीं रहे थे | उनके शतक मारते ही दनदना के ठेल दी गयीं | कुछ ने तो डाटा अपडेट ही नहीं किया | सचिन की उम्र तक पुरानी बता दी गयी |

पर मुझे लगता है की विश्लेषण अभी भी लाइव ही होते हैं |  इसी लाइव विश्लेषण के चक्कर में विश्लेषकों की मौत है | अब मान लीजिये कोई विश्लेषक स्टूडियो पहुचने के चक्कर में कल के मैच का आखिरी ओवर न देखे और स्टूडियो पहुँच कर सीधे विश्लेषण शुरू कर दे |

“मुझे समझ नहीं आता की ये धोनी हर मैच को आखिर तक क्यूँ ले जाते हैं” ये कहते हुए उन्होंने मेज़ पर हाथ पटका गुस्से से |

कान में घुसे हुए हेडफोन के द्वारा , जो घुंघराले बालों की तरह लटका हुआ था,  कंट्रोल रूम से आवाज़ आये “सर हम मैच जीत गए हैं |”

बात संभालते हुए बोले “वो तो कहिये वो खुद आउट नहीं हुए वर्ना हम मैच हार जाते | धोनी को इस बात की ज़िम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी |”

फिर कान में आवाज़ आयी “सर धोनी ने ही जिताया है |”

लड़खड़ाते हुए बोले “पर शायद उन्हें अपनी काबिलियत पर पूरा भरोसा है, ऐसा मैच सिर्फ वो ही जिता सकते हैं , वो महान खिलाड़ी हैं, उनके जैसा कोई दूसरा नहीं हो सकता |” ( पूरे विश्लेषण में आंकडे गायब रहते हैं )

पर इन सबसे बचने का एक जुगाड़ हो सकता है | जीतने , हारने, बारिश होने  और ड्रा होने के सारे विश्लेषण मैच से पहले रिकार्ड कर लेने चाहिए | जैसा रिजल्ट हो वैसा बजा देना चाहिए | यहाँ पर ऑपरेटर्स की नौकरी बहुत इम्पोर्टेन्ट हो जायेगी | जैसा रिजल्ट वैसा विडियो बजाना होगा |

वैसे इस केस में विडियो रीयूज़ भी किये जा सकते हैं , काहे की ना आंकडे होंगे, ना मैच की फूटेज तो आराम से काम चल जायेगा | न्यूज़ चैनल वाले विडियो एक्सचेंज भी कर सकते हैं आपस में | वरायटी बनी रहेगी |

सिद्धू पा जी का अपना अलग रिकार्डिंग स्टूडियो होगा |  जहाँ वो दनादन रिकार्डिंग किये जायेंगे अपने विश्लेषण  |  रवि शास्त्री तो वैसे भी गिने चुने जुमले बोलते हैं , उनके जुमलों को अलग अलग रिकार्ड करके एडिटिंग की जा सकती है | हर्षा भोगले , शारदा उग्रा जैसों को तो वैसे भी कोई तड़क-भड़क वाला चैनल पूछता ही नहीं | उनके विडिओ क्रिक-इन्फो पर मिल ही जायेंगे |

सबसे बड़ी समस्या तब खड़ी होगी जब इस तरह एडवांस में बनाये विश्लेषण विडिओ किसी वेबसाईट पर लीक कर दिए जायेंगे और इस देश में नैतिकता के गिरते स्तर पर सारे बुद्धिजीवी फिर से विचार करने लगेंगे !!!!

पर अपन को क्या, हम तो बैठ के अगला मैच देखेंगे टीवी पर | मेरी मानिये तो आप भी यही करियेगा | और इससे पहले की खून चूसने के आरोप में हम धर लिए जाएँ और हमारा पोसमार्टम हो जाए , हम भागते हैं …

फिर मिलेंगे !!!! टाटा !!!
-- देवांशु 
(फोटू गूगल इमेज से एक बार फिर चुराया हुआ )

सोमवार, 8 जुलाई 2013

तुमि तो ठेहेरे परदेसी , साथि क्या निभावोगे…

“यार ज़िंदगी से कलर चला गया |”

****

नौसिखिया दारूबाजों को दारू के अलावा दो और चीज़ों की सख्त आवश्यकता होती है : घर से दूरी और एकांत | बड़े शहरों में एकांत के बिना भी काम चल जाता है, पर छोटे शहरों में इसकी आवश्यकता ऐसी है जैसे सरकार को सीबीआई की | और अगर इन दोनो के साथ ताज़ा-ताज़ा दिल टूटा हो तो क्या कहना, सोने पर सुहागा | 

****

बात तब की है जब हम कॉलेज में नए-नए शिफ्ट हुए थे, और बात-बेबात मौका निकाल कर घर जाया करते थे | महल्ले में उस समय प्यार का रोग भर भर के चढा था, हर कोई इश्क में बावरा हुआ पड़ा था | हमारे एक बचपन के दोस्त थे जो पांचवी क्लास तक हमारे साथ पढ़े थे और हमारे घर से ३ गली छोड़ कर रहते थे , नमन |


नमन

घर  का नाम : बड़कन्ने, इस्कूल का : नमन त्रिवेदी | वो अपनी हृष्ट-पुष्ट काया से सिर्फ बब्बू दादा को ही टक्कर दे सकते थे | बचपने में ही महल्ले के ही किसी जीव-वैज्ञानिक ने खबर उड़ा दी थी, “केंचुआ" आगे पीछे दोनों तरफ से एक जैसा चल सकता है और नमन का नाम भी आगे-पीछे से एक जैसा था तो महाशय का महल्ले का नाम रख दिया गया , “केंचुआ" | उनकी बाडी भी नाम को पूरा समर्थन देती थी | लचर गर्दन, जो बोलते बोलते किसी भी तरफ झुक सकती थी, जैसे थाली पर के बैंगन | मिमियाती आवाज़, बकरी को भी मत दे दे और बहती नाक, जिसके कुछ कतरे गालों के अंत तक पाए जाते थे |


पर बड़े होकर ऐसा कुछ ना रहा | हमारे बी टेक का पहला साल था, श्रीमान केंचुआ जी , बी ए - दूसरे साल में थे | अब तक उनका बाकी शरीर तो जस का तस रहा था, तोंद ने बोरे का रूप लेना शुरू कर दिया था |


हमरे शहर में एक मैनरोड है, जो एक पंचराहे से शुरू होकर रेलवे क्रोसिंग तक जाती है | वहाँ अभी तो ओवरब्रिज बन रहा है ( जिसका जिक्र फिल्म साहब बीवी और गैंगस्टर में आया है) , उस समय नहीं बन रहा था | केंचुआ अपने एक दोस्त के साथ , करीब शाम को सात बजे मैनरोड पर ही भिंटा गए | अब चूँकि वो हमारे इस्कूल के दोस्त थे तो उनका संबोधन वैसा ही रहा “अरे भईया दिवान्सू, कब आयेओ” | हमने बताया कल ही आये हैं, १ हफ्ता रुकेंगे |


उन्होंने कुछ इशारा किया अपने दोस्त को और बोले “आज बड़े सही दिन मिले हो भईया तुम, चलो आज हमरे साथ चलो” | अपनी बाइक में ट्रिपलिंग करते हुए वो हमें उठा के चल दिए | रेलवे क्रोस्सिंग से उनकी बाइक पटरी के सहारे-सहारे बाएं मुड़ ली और करीब आधे किलोमीटर दूर जाकर रुकी | सबसे पहले हम कूदे, बाद में उनके दोस्त फिर केंचुआ महाशय |


वहाँ पास में एक छोटा खँडहर था , रेलवे का ही कोई “परित्यक्त" केबिन | एकांत आ गया था | उसके अंदर “टोर्च" वाले मोबाइल का इस्तेमाल करके रोशनी की गयी | इसके बाद उनके दोस्त ने बैग से “रायल स्टैग" का खम्भा निकाल लिया , साथ में प्लास्टिक के गिलास और एक थैली  जिसमें सूखे मेवे भरे हुए थे  | पानी की बोतलें भी थीं | उस समय हम “मैं कोलेज पढ़ने आया हूँ, सिर्फ पढ़ने" के सिद्धांत का पालन करते थे तो केवल दो पेग बने | फटाफट केंचुआ और उनके दोस्त ने दो दो पेग अंदर ढकोले | इसके बाद इंट्रो शुरू हुआ |


“अरे हम तो बतैबे नहीं किये,  ई हमार दोस्त है , चिलगोजा , ससुरे की बाप की सूखे मेवा की दुकान है , यही लिए सारेक् ई नाम पड़ा" अपने दोस्त को इंट्रोड्यूस करते हुए केंचुआ महाशय बोले |
“और ई हैं हमरे दोस्त दिवान्सू, इनका पढेक बड़ी खुजली है बचपन सेने, अबहीं दिल्ली में पढ़ी रहे हैं, सार ना जाने का करिहें पढ़ी के” हमारा इंट्रोडकशन भी दे दिया गया |


अब बारी चिलगोजा जी के बोलने की थी “भईया, आप तो दिल्ली मा कालेज मा पढ़त हो , वहन तो बहुतै सही कन्यायें पढ़े आती हुइहें” | हम बस केवल मुस्किया दिए | वो आगे बढ़े  “कोई पटाय पायेओ की नाहीं" | अब बारी हमारे शर्माने की थी | एक इसी मैदान में तो चारों खाने चित्त थे हम |


“अरे ई ससुरे सीधे लरिका हैं" | तीसरे पेग के बाद आयी झुमाई के साथ केंचुआ बोले |

“पर ई सार केंचुआ, यहु नाय माना, तुम्हरे महल्ले की एक लड़की का प्रपोज़ मार दिहिस"  चिलगोजा ने हिकारत भरी नज़रों से केंचुआ को देखते हुए हमें संबोधित किया | अब ये खबर थी | महल्ले की सारी कंडीडेट लड़कियों की तस्वीरें ज़हन में घूमने लगीं , गेस करने लगे कौन होगी वो बदनसीब, हालांकि डाटा पुराना था हमारा  | अब तक केंचुआ की सुबकाई शुरू हो गयी थी | एक और पेग अंदर गया |  और बोले “यार दुई गली छोड़ के पहले  मकान वाली, मास्टर की छोटी बिटिया” |  


चिलगोजे ने बड़े ओर का ठहाका लगाया | हम फोटो याद करने में लगे थे , बहुत मेहनत से भी नहीं याद आयी |
श्रीमान केंचुआ जी अब दहाड़ मार कर रोने लगे थे | बोले : “यार ज़िंदगी से कलर चला गया |”


“तौ कलर हम लाये देइत है” ये कहते हुए चिलगोजा ने अपने बैग से एल चाइनीज़ पोर्टेबल कैसेट प्लयेर निकाला और ऑन किया | ऑन करते ही सबसे पहले , उसमे हर तरफ लाल-नीली बत्तियाँ जलीं और पलक झपकते ही खँडहर डिस्कोथेक में बदल गया |  साथ में  अल्ताफ राजा की आवाज़ गूंजी “तुम तो ठहरे परदेसी, साथ क्या निभाओगे" | अल्ताफ राजा के गानों के ज़हर की तीव्रता उनके द्वारा बीच बीच में छोड़े गए शेरों से और बढ़ जाती है | वही हुआ , मेरा केंचुआ की स्टोरी में कोई इंटरेस्ट नहीं बचा |


“यार, बहुतै मतलब वाला गाना है" केंचुआ जी ने जिव्हा खोली और हमारी तरफ देखा | हम फटाफट कट लेने वाले मोड में थे | बोले “तुम नाय समझियो" | हम चिलगोजा भाई की तरफ इशारा करके पूछे कि माजरा क्या है | उन्होंने बताया |


“इन्हैक किलास मा पढ़त है मास्टर केर बिटिया, ई गधऊ, लब-लेटर लिख दिहिन और वहिकी कापी मा रखि दिहिन | ऊ देखिस नाही, वहिकी कापी वहिकी अम्मा ठीक से लगाती रहें की इनका परचा गिरि परा |”

केंचुआ ने गम-गलत करने के मकसद से एक पेग और अंदर किया और कराहे “हाए"|


“अम्मा तो ब्लैक लेटर बफैलो हैं, चिट्ठी पढ़े वहिके बड़े भईया  | पहले तो वहे सुजाय दी गयीं | फिर जब पता चला उधर से कुछ नाय है तब ई पकरे गए |”


“अबे तो कैसे पता चला कि लेटर इन्होने लिखा है” हमने समझने की कोशिश की | केंचुआ की एक और आह निकली | चिलगोजा आगे बढ़े |


“इ ससुर लेटर के आखिरी मा हिन्दी के बिद्वान बनी गए रहे लिखी दिहिन , तुम्हें नमन करता है तुम्हारा नमन | वहिके बाद इनकी पहिले हुई ढंुढाइ , फिर हुई धुनाई |


अल्ताफ राजा कोई एक शेर पढके आगे बढ़े | केंचुआ का रोना अब थम गया था बोले “ऊ शुकला मास्टर , वहू शाम का चठिया लगाये ब्रह्मा-विष्नू कर रहा रहे , मारे वाले ५-७ और बढ़ी गए | और तो और पापाओ का बताय दिहिस | वहो मारिन |”


इस बीच खम्बा खतम हो चुका था | मामला समिट रहा था | हमने घावों को कुरेदते हुए पता किया “ फिर कन्या ने जवाब दिया?” | केंचुआ तमतमा गए बोले “अगलिहे दिन से वहिके दोनों भाई ऊका कालेज ले-छोड़े आये लगे, अभी उसका जवाब आना बाकी है” |


माहौल में दर्द बढ़ गया था | हमने बोला इस हालत में घर कैसे जाओगे | तो पता चला चिलगोजे के घर में सब लोग बाहर गए हैं , केंचुआ आज उसी के यहाँ रुकेंगे, अकेले चिलगोजे को डर ना लगे कहीं | हमने चिलगोजे का मुआयना किया और पाया कि इससे वीभत्स प्राणी मैंने शायद ही कहीं देखा हैं, इसे किस्से डर लगेगा | खैर हमने दोनों को उनके घर छोड़ा और वापस अपने घर की ओर चल दिए | पीछे से उन दोनों के रेंकने की आवाज़ आ रही थी …

तुमि तो ठेहेरे परदेसी , साथि क्या निभावोगे…
(हालांकि मास्टर और उनका पूरा खानदान, कम से कम पिछले ३० साल से महल्ले में रह रहा था )

#जाके पैर ना फटी बिवाई, सो का जाने पीर पराई |

-- देवांशु

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

ज़िन्दगी की एक शाम और मुक़र्रर मौत का इंतज़ार


कभी हुआ है यूँ , की बस पता हो की फलाने दिन , फलाने वक़्त पर मौत मुक़र्रर है |  और मौत भी कोई ऐसी नहीं, जिस्म  ख़त्म होना तो दूर की बात है, एक खरोंच भी नहीं आनी है | और उस मौत के बाद जिंदा रहने के लिए अगर कुछ मारना है तो खुद की रूह को |
एक बड़े दार्शनिक की तरह हर आने वाले दिन को ख़ुशी-ख़ुशी जीते चलो पर मुकर्रर दिन ठीक एक दिन पहले की रात को एक कंपकंपी उठे, दिल ज़ोरों से धड़कने लगे , आँखों के सामने अँधेरा छा जाए | ज़िंदगी के नूर की एक-एक बूँद के लिए प्यास बढ़ने लगे |
और फिर एक आस,  की कुछ वक़्त को ही सही, वो नूर दिखेगा तुम्हे कल | तृप्त कर लेना अपनी आत्मा को, आँखों में बसा लेना उस नूर को और लौट जाना | कुछ पलों के लिए ही सही, मौत का दर्द कम होता लगे |  गिने-चुने लम्हों के लिए नींद अपनी बाहों में सुला ले |
जब आँख खुले तो सबसे पहले वो  आस टूट जाए | और फिर पता चले की इस आखिरी दिन भी मोक्ष मिलना मुमकिन नहीं | साँसे भारी हो जाएं | इसके बाद बची ज़िन्दगी भी क्या ख़ाक ज़िन्दगी है ??
*****
बाहर आसमान में पिछले कई दिनों से बादल लटके हैं,  ना उड़ जा रहे हैं , ना बरस रहे हैं | शाम का वक़्त है | ऑफिस की खिड़की से बाहर उन्ही बादलों को देख रहा हूँ |  सामने सड़क है | दौडती गाड़ियाँ ना जाने किस मकाम को जाना चाहती हैं |

ज़िन्दगी की सबसे मुश्किल शाम है ये , मुक़र्रर वक़्त में कुछ आधे घंटे से भी कम का वक़्त रह गया है |  सोच रहा हूँ क्या करूँ ? मन करता है की सारे दरवाज़े तोड़ दूं, और आज़ाद कर दूं इस रूह को | पर कायर हूँ , ये नहीं कर सकता |  या रोक लूं उस नूर को आँखों से ओझल होने से , पर वो अब नहीं हो सकता , इसे मजबूरी कहूं या एक बार फिर खुद को कायर , ज्यादा फर्क नहीं है दोनों में ही |
****
कल दोस्त ने सेलिन डियोन का ये गाना सुनने को बोला था , सुबह से लगातार सुने जा रहा हूँ…

When life is empty with no tomorrow
And loneliness starts to call
Baby, don't worry, forget your sorrow
'Cause love's gonna conquer it all, all

When you want it the most there's no easy way out
When you're ready to go and your heart's left in doubt
Don't give up on your faith
Love comes to those who believe it
And that's the way it is

-- देवांशु